रहा करती थी
कसमसाहट सी कभी
उबलते हुए सवालों में,
आकुल रहती थीं ऊर्जाएं
उफनकर बह निकलने को
दहकती आग सी होती थी
हर सख्त-ओ-नर्म कोनों में
सुना भर है हमने ।
नही उठते हैं सर अब तो
बढ़ते नही हैं आगे
तरेरकर आँखें
सुलगते हुए सवाल।
आग तो बहुत दूर
अब तो महसूस नही होती गर्मी तक
कहीं आस पास ।
इससे पहले कि बहता हुआ लहू
जम जाए शिराओं में ही
पिघलानी होगी बर्फ
जो जम चुकी है
हमारे चारो ओर ।
कसमसाहट सी कभी
उबलते हुए सवालों में,
आकुल रहती थीं ऊर्जाएं
उफनकर बह निकलने को
दहकती आग सी होती थी
हर सख्त-ओ-नर्म कोनों में
सुना भर है हमने ।
नही उठते हैं सर अब तो
बढ़ते नही हैं आगे
तरेरकर आँखें
सुलगते हुए सवाल।
आग तो बहुत दूर
अब तो महसूस नही होती गर्मी तक
कहीं आस पास ।
इससे पहले कि बहता हुआ लहू
जम जाए शिराओं में ही
पिघलानी होगी बर्फ
जो जम चुकी है
हमारे चारो ओर ।
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on Dec 30, 2008
at Tuesday, December 30, 2008
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कविताएँ
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