जब हम मिलेंगे फ़िर !  

Posted by roushan in

एक दिन कभी
शायद हम फिर मिलें
जीवन के किसी मोड़ पर
यूँ ही भटकते हुए
तब शायद हम ढोंग करें
एक-दूसरे को न जानने का।


या फिर हम पहचान लें
और थोड़ा मुस्कुरा कर कहें
“अच्छा लगा तुमसे मिलकर”
और कर के कुछ इधर-उधर क़ी बातें
अचानक कोई ज़रूरी काम याद आने की बात कहकर
थोड़ा और मुस्कुराएंगे
और अलग होंगें कह कर
फिर से मिलने क़ी उम्मीदों के बारें में ।


लेकिन ये सब कुछ
शुरू से ही झूठ होगा
धोखा होगा ख़ुद से ही
उस वक़्त हमे मिलना पसंद आए शायद
भारी लगे मुस्कुराना,
दर्द दे बातें करना
और तो और
फिर से अलग होना भी परेशान करेगा
दिल रोएगा आँसू छिपा
फिर से अलग होने क़ी बेबसी से।


लेकिन कभी नही रहा
इतना समझदार ये दिल
ये फिर से मिलना चाहता है
बातें करना और मुस्कुराना चाहता है
ज़ख़्मों को फिर से खोल-खोल कर
फिर-फिर से रोना चाहता है।




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This entry was posted on Jan 4, 2009 at Sunday, January 04, 2009 and is filed under . You can follow any responses to this entry through the comments feed .

11 comments

Anonymous  

लेकिन कभी नही रहा
इतना समझदार ये दिल
ये फिर से मिलना चाहता है
बातें करना और मुस्कुराना चाहता है
ज़ख़्मों को फिर से खोल-खोल कर
फिर-फिर से रोना चाहता है।...

आह !
दिल का पागलपन ही उसकी सबसे बड़ी विशेषता है

January 4, 2009 at 1:40:00 PM GMT+5:30
Anonymous  

bahut sundar rachana,pagle di ko kya kahe ab.

January 4, 2009 at 2:03:00 PM GMT+5:30
Anonymous  

लेकिन कभी नही रहा
इतना समझदार ये दिल
ये फिर से मिलना चाहता है
बातें करना और मुस्कुराना चाहता है
ज़ख़्मों को फिर से खोल-खोल कर
फिर-फिर से रोना चाहता है।

इसी का नाम जिंदा‍दिली है।

January 6, 2009 at 12:44:00 PM GMT+5:30
Anonymous  

एक चुभता हुआ सा सच है इस कविता में, दिल की इस नासमझी में...और फ़िर मिलने की इस चाहत में.

January 6, 2009 at 1:14:00 PM GMT+5:30
Anonymous  

लेकिन कभी नही रहा
इतना समझदार ये दिल
ये फिर से मिलना चाहता है
बातें करना और मुस्कुराना चाहता है
ज़ख़्मों को फिर से खोल-खोल कर
फिर-फिर से रोना चाहता है।

dil k sath aisa hi hota hai.

January 6, 2009 at 1:58:00 PM GMT+5:30
Anonymous  

Ajeeb hota hai
par aisa mauka hi kyon aane diya jaay?

January 6, 2009 at 3:03:00 PM GMT+5:30
Anonymous  

gr8 thought

January 7, 2009 at 2:47:00 PM GMT+5:30
Anonymous  

रौशन जी,

इस पूरी कविता का सारा मजा सिगरेट के आखिरी कश की तरह इन पंक्‍तियों में है :-
लेकिन कभी नही रहा
इतना समझदार ये दिल
ये फिर से मिलना चाहता है
बातें करना और मुस्कुराना चाहता है
ज़ख़्मों को फिर से खोल-खोल कर
फिर-फिर से रोना चाहता है।

बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्‍ति. बधाईयाँ.

मुकेश कुमार तिवारी

January 7, 2009 at 5:25:00 PM GMT+5:30
Anonymous  

लेकिन ये सब कुछ शुरू से ही झूठ होगा....
धोखा होगा ख़ुद से ही .....
दिल में छिपे बैठे एक सच्चे सच्च को बड़ी सादगी और साहस से कह डाला है आपने अपनी इस अनूठी कविता में ! अपने साथ जुड़ा हुआ कोई ख़ास रिश्ता कहाँ भूल पता है दिल कभी...!!

बहोत ही उम्दा नज़्म के लिए बधाई स्वीकार करें .
---मुफलिस---

January 7, 2009 at 5:37:00 PM GMT+5:30
Anonymous  

Hmmm...Nisha ne bilkul sahi farmaya hai!

January 15, 2009 at 7:50:00 PM GMT+5:30
Anonymous  

ise pad kar mahassos hua ki kanhi n kanhi hum sabka dil ek aise anjaane rishte me bandha hota hai...... apne un sabhi logo ki bhavnao ko lafjo me peero diya h,apko badhai.

January 29, 2009 at 7:57:00 PM GMT+5:30

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