अब! जब कि
कुछ ही दिनों में हमारे रिश्ते
बीते दिनों की मीठी सी
याद बनकर रह जाने को हैं।
अब! जब कि
हमारी पहचान पुरानी किताबों के सूखे फूल
या अनायास ही लिखे कुछ शब्द देख
होठों पर आ जाने वाली
दर्द भरी मुस्कान बनकर रह जाने को है।
अब! जब कि
सारी शरारतें, सारे सपने
इन गुजरे सालों की
सारी दिलचस्प बकवासें
कुछ खोयी सी कहानियाँ बनकर रह जाने को हैं।
अब! जब कि
हम जानते हैं कि चेहरों पर चिपकी
ये मुस्कुराहटें झूठी हैं
और आंखों में बरस पड़ने को
तैयार हजारों मोती हैं।
अब! जब कि
रात भर नींद नहीं आती
डराता है आने वाला कल
जागी हुई आंखों को
और बचे हुए लम्हों को
कमजोर मुट्ठियों में रोकने की
बेकार कोशिशें जारी हैं।
अब! जब कि
झूठी उम्मीदों पर जीने लगें हैं हम
भीतर ही भीतर बेजार-बेबस हो
छुप-छुप रोने लगे हैं हम।
अब! जब कि
उठाती हैं सवाल
अपनी ही उँगलियाँ ख़ुद पर
और अन्दर बैठा कोई
संभालने, संवारने की
कुछ आखिरी कोशिशों में है निरंतर।
अब! जब कि
कुछ ही दिनों में
दूर, बहुत दूर हमें हो जाना है
और फ़िर याद करके अनकही बातों को
पछताना बस पछताना है।
पर अब भी
ह्रदय में मचलता सागर
होठों से नही निकलेगा
बुन लीं हैं हमने मुश्किलें ऐसीं
कि कोई रास्ता नही निकलेगा।
This entry was posted
on Oct 18, 2008
at Saturday, October 18, 2008
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