हिंसा, बदले और मानसिकताएं
फर्ज कीजिये राहुल राज का नाम रिजवान उर रहमान होता और उसने मुंबई की जगह अहमदाबाद में बस का अपहरण करने की कोशिश की होती। वहाँ पर वह कहता कि मै नरेंद्र मोदी को सबक सिखाना चाहता हूँ तो क्या होता ?
क्या उसके प्रदेश के नेता बिना पूरे देश की निंदा सहे प्रधान मंत्री से उसके मारे जाने के ख़िलाफ़ अपील कर पाते ?
क्या प्रधान मंत्री द्वारा गुजरात सरकार से स्पष्टीकरण मांगना इतने सहज तरीके से देखा जा पाता?
याद कीजिये बाटला हॉउस मामले को? क्या हर उस इंसान जिसने मुठभेड़ पर सवाल उठाये, को इतनी सहजता से लिया गया? दोनों मामलों में लोग जख्मी हुए। इंस्पेक्टर शर्मा की मौत अस्पताल में हुयी लेकिन क्या कोई कह सकता था कि उनकी मौत अवश्यम्भावी है जब उनको गोली लगी थी? क्या कोई कह सकता था कि जिस व्यक्ति को राहुल की गोली लगी थी वह बच ही जाएगा?
हम पुलिस की कार्यवाही का समर्थन नही कर रहे हैं पर बाटला हॉउस की दलीलें मुंबई में क्यों नही प्रभावी हैं? सभी न्यूज़ चैनल एक ओर से पूछ रहे हैं कि क्या राहुल को बिना मारे हल नही निकल सकता था पर जिन्होंने बाटला हॉउस में पुलिस पर प्रश्न उठाये उन्हें इतनी सहजता से क्यों नही लिया गया और जिन्हें दिल्ली पुलिस पर पूरा उन्हें मुंबई पुलिस पर यकीन क्यों नही है?
जब लालू ने कहा कि अगर नरेंद्र मोदी को सजा मिली होती तो आतंकवादी पैदा नही होते और भर्त्सना पायी पर इस मामले पर उसी तरह की बातें करने वाले सहजता से लिए जा रहे हैं।
याद करिए गुजरात के उस एन्काउन्टर को , बंजारा अभी भी जेल में है और उसे भुना कर मोदी गद्दी पर। अब बाटला हॉउस और मुंबई की बसों को कौन भुनायेगा ये सामने जल्दी आएगा।
आप कहेंगे कि इस दीवाली के पावन दिन ये शख्स ये क्या राग ले कर बैठ गया। पर क्या करें दीवाली पर बधाई देने जैसा कुछ नजर नही आ रहा है? हमारी क्या गलती है अगर हमें अपना घर बँटा हुआ हुआ दिख रहा है । क्या करें पर दिल भी तो खुश होना चाहिए न?
कल महाराष्ट्र के गृह मंत्री को टी वी पर देखा बड़े तैश में थे। गोली का जवाब गोली से बता रहे थे। उन्हें एक बिहारी कि इस हरकत पर इतना गुस्सा आ गया पर महीनों से राज और उसके गुंडों कि हरकतों पर तैश नही आया आखिर क्यों? ये मराठी और बिहारी का मामला है या फ़िर अकेले राहुल को तो गोली से वो निपटा सकते हैं और राज के गुंडों से डर लगता है? कल टी वी पर गृह मंत्री के चेहरे पर नजर आ रहा तैश क्या साबित करता है? क्या वो भी उसी मानसिकता के गुलाम नही हैं जो राज और उसके गुंडों की है। सच है कि अगर कानून व्यवस्था के नाम पर उन्हें तैश पहले आ जाता तो शायद नौबत यहाँ तक नही आती।
लोग बिहार की राजनीति की बुराई करते हैं पर कम से कम उन नेताओं में इतनी नैतिकता तो थी कि सभी दलों के नेताओं ने एकजुट हो कर बिहार में चल रही हिंसाओं की निंदा की। न जाने और लोग इतने समझ दार कब होंगे?
न्यूज़ चैनलों पर बाढ़ सी आई हुयी है । लोग हिंदू आतंकवाद शब्द लिख लिख कर उसका आनंद उठा रहे हैं। जैसे मालेगांव धमाकों के आरोपियों के हिंदू होने से इन्हे बड़ी तृप्ति हुई हो। जैसे इससे पहले कोई हिंदू आतंकवादी ही न रहा हो। जैसे स्टेन्स के हत्यारे, गुजरात दंगों के अपराधी, उड़ीसा के दंगाई, सभी संत रहे हों। ये बदले की वही पुरानी मानसिकता है जिसके तहत अयोध्या में ढांचा तोडा गया था, जिसके तहत सिख मारे गए थे, जिसके तहत देश भर में आतंवादी घटनाएँ हो रही हैं, जिसके तहत उड़ीसा में ईसाई जलाये जा रहे हैं और जिसके तहत गुजरात में नरसंहार हुआ था।
विश्वास न हो तो बशीर बद्र से पूछ लीजिये वो बताएँगे कि अगर मुसलमानों ने बम विस्फोटों में लोगो को मारा और अब हिंदू उसका बदला ले रहे हैं तो इसमें बुरा क्या है। (अभी अयोध्या मामलें में उन्होंने ऐसे ही तर्क दिए थे।)। जिस देश में समाज को दिशा देने वाले साहित्यकार ऐसी सोच रखने वाले हो जाएँ उस समाज में त्योहारों का मतलब ही क्या है। क्यों और कैसे स्वीकार करें हम इस दीवाली पर शुभकामनायें?
हम विघ्नसंतोषी नही हैं हम भी खुशी चाहते हैं पर सब गृहमंत्रियों को चयनात्मक तैश आने की बीमारी हो जाए। लोग घटनाओं को नियत चश्मों से देखने लग जायें तो क्या करें आख़िर?
मालेगांव धमाको के संदिग्ध आतंकवादी दोषी हैं या नही इसका फैसला अभी कोर्ट को करना है (जैसे बाकी धमाकों के संदिग्ध आतंकवादियों का ) पर इससे पहले समाज को यह तय करना है कि उसे आतिफ और प्रज्ञा चाहिए या कलाम और अमर्त्य सेन। बाटला हॉउस हो या मुंबई की एक अभागी बस सिर्फ़ पुलिस और मीडिया की कहानी पर यकीन करना है या तथ्यों को आने देने का इंतज़ार?