कच्ची उम्र के कच्चे आम  

Posted by roushan in

आम का नाम लेने भर से बचपन की कई बातें याद आ जाया करती हैं.
शहरों के चक्कर मे फासने से पहले हम छोटे कस्बों मे रहा करते थे और जो भी छोटे कस्बों मे रहे होंगे उन्हे पता होगा कि छोटे कस्बे वास्तव में गाँव ही होते हैं. हमारे घर के आस पास खूब आम के पेड़ हुआ करते थे कुछ हमारे और कुछ औरों के. जाड़े ख़त्म होते होते आम के पेड़ो पर नये पत्ते आ जाते थे. हम बच्चे उन पत्तों को बड़े चाव से देखते और इंतज़ार करते आम मे बौर आने का.
वैसे सच तो ये है कि हम मे से कुछ उन कोमल चटख रंग के पत्तो का भी स्वाद लिया करते थे.
बौर आ जाने के बाद तो फिर लोग पागल से हो जाते या यूँ कहें कि बौराने लग जाते थे.
क्या बड़े क्या बच्चे सभी घूम घूम कर आने वाली आम कि फसल का अंदाज़ा लगाया करते थे और कुछ अधीर प्रकृति के लोग तो बौर का स्वाद लेते और ये सोच कर खुश होते कि आने वाले कुछ दिनो में जिंदगी कितनी स्वादिष्ट होने जा रही है. बौर का स्वाद थोड़ा - थोड़ा आम के छिलकों जैसा होता है.बहरहाल इंतज़ार ज़्यादा नही करना पड़ता और जल्दी ही छोटे छोटे आम के फल पेड़ों कि डालियों से लटकते नज़र आने लग जाते और हमारी जिंदगी बाकी गर्मियों के लिए आम के पेड़ों के इर्द’गिर्द सिमट के रह जाती. अपने पेड़ों कि रखवाली और दूसरों के पेड़ों पर पैनी नज़र रखना हम बच्चों द्वारा अपने लिए चुना हुआ काम होता था . ये कुछ ऐसे कामों में था जिस पर कभी न तो बड़ों ने ऐतराज किया और न दखल दिया. हम जानते थे कि दूसरों के पेड़ों से मौका देखा कर तोड़ा गया आम सबसे स्वादिष्ट होता है और हमने कई बार उन आमों का अलौकिक स्वाद लिया भी है.
बड़े आमों को काई क़िस्मों मे रखा करते थे. जैसे जो आम के पेड़ खुद ही फेके हुए बीजों से लग जाते उन्हे बीजू कहा जाता था और कलमी उन पेड़ों को जिन्हे कलम करके लगाया जाता था. वैसे हम बच्चे उपयोगिता वाडी किस्म के हुआ करते थे हम जानते थे कि नाम और किस्म जैसी भौतिक चीज़ें तो अवास्तविक और बेकार कि बाते होती हैं. सच्ची चीज़ तो स्वाद है जिसे देखा नही महसूस किया जाता है. हमारे लिए खट्टे आमों का कुछ ज़्यादा ही महत्व होता था और जो लोग कच्चे आमो मे उन्हे पसंद करते जो खट्टे नही होते उन्हे हम हिकारत कि नज़र से देखते थे.
कच्चे आमों को, जब तक उसके बीज के उपर जाली बनना नही शुरू हो जाती , टिकोरा कहते हैं. और आमों का असली स्वाद तो टिकोरों मे मिलता था. हमारे यहाँ इतने पेड़ नही थे कि आम बेचे जाएँ और इस स्थिति मे बड़ों को इस बात से मतलब नही रहता था कि हम टिकोरे भी तोड़ रहे हैं क्योंकि जी भर के टिकोरे खाने और आम के अचार बनने के बाद भी जी भर के पके आम खाने के लिए आम बचे रह जाते.
टिकोरे कई तरह से खाए जाते थे. हममे से कुछ जलबाज़ तो टिकोरा हाथ मे आने के बाद उनसे छीन लिया जाए इस दर से उसे छिलके सहित खा लेते थे. वैसे हमारे पास पूरा प्रबंध रहता था. मसलन छोटी सी प्लेट, नदियों के पास पाई जाने वाली सीपी जिसने आधे हिस्से को पत्थर कि सिल पर घिस कर छीलनी बना ली जाती थी, पीसा हुआ नमक और पीसी हुई लाल मिर्च.कायदा ये था कि पहले टिकोरे का छिलका उतरा जाता और फिर उसके पतले पतले छिलके बनाए जाते. इसके बाद उसमें नमक और लालमिर्च मिलाई जाती और फिर सभी भाई-बहन उसे मिलकर खाते. उसे तैयार करने कि पूरी प्रक्रिया के दौरान सभी के मूह में बेतहाशा पानी आता रहता.
थोड़ा बड़े टिकोरे घर के अंदर ले जाए जाते और पुदीने के साथ पीस कर चटनी बनाई जाती. मेरे जैसे बच्चे जो हरी सब्जियाँ खाने मे थोड़ा नकचढ़े थे, पूरे मौसम इसी आम और पुदीने कि चटनी पर गुज़रा करते. सच तो ये है कि मैने पूरा खाना सिर्फ़ मेसों में ही खाया है.
कुछ और बड़े होने पर आम में हल्की हल्की जाली पड़ने लग जाती. पेड़ के नीचे कि वो नमक और लालमिर्च वाली चीज़ तो जारी रहती पर साथ ही साथ दाल में आम पड़ने लग जाता. और आम के दो टुकड़े कर के उसे गुड में पका कर मीठी खटाई बनाई जाती और रोटी के साथ मज़े से खाई जाती. कभी कभी आम को उबाल कर उसे मसल लिया जाता और उसमे जाने क्या क्या मिला कर आम का पना बनाया जाता . बड़े कहते थे कि इसको पीने से लू से राहत मिलती है. राहत का तो पता नही पर होता था ये बहुत ही स्वादिष्ट.
इसी समय एक महान युद्ध छिड़ जाता जब अपने आमों को बचाना और दूसरों के आमो को झटकना होता था. गर्मी के उन दिनो में अक्सर आँधी आ जाती है और आम जाम के गिरते हैं. दिन क़ी आँधिया तो ठीक होती थीं क्योंकि सभी अपने पेड़ों के नीचे जमे रहते थे पर अगर रात में आँधी आई तो पहले जागने वाला फ़ायदे में रहता था. इसका उपचार यही था कि आँधी आते ही नींद खुल जाए और रात ही रात गिरे हुए आमों पर कब्जा कर लिया जाए. न जाने कितनी रातें हम लोगों ने पेड़ के नीचे आम बीनते हुए गुज़ार दी हैं. मज़ा आती थी उन रातों में भी.एक और तरीका होता था जो ज़रा ख़तरनाक होता था और उसमे आम भी नही मिलते थे. ये तरीका शुद्ध रूप से ईर्ष्यभरे हृदयों क़ी उपज था. इसमे दूसरों के पेड़ो के आम किसी भी तरह पत्थर मार के गिरने का था जिससे उसके पेड़ में आम कम हो जाएँ. किसी के ऐसे ही प्रयोग के दरम्यान एक बार मेरे सर पर बड़ा सा पत्थर आ के गिरा जिसका निशान अभी तक है.
इस बीच हम आम के पेड़ों पर चढ़ कर अचार के लिए आम का बंदोबस्त करने में जुट जाते. अचार के आम ज़मीन पर नही गिरे होने चाहिए क्योंकि इससे बनने वाले अचार खराब हो जाते हैं. जो आम पेड़ पर चढ़ कर मिल जाते वो तो ठीक थे पर बाकी आमों के लिए लंबे से बाँस के टुकड़े में छोटी सी खपच्ची बाँध कर लग्गी बनाई जाती और आम उसमे फँसा के तोड़े जाते, नीचे उसे लपकने के लिए दूसरे तैयार रहते. जो आम हाथ में आ जाते उनका अचार बनता और बचे हुए आम सूखा कर खटाई बना दिए जाते. मुझे लगता है क़ी आम लपकने में मैने थोड़ी मेहनत क़ी होती तो आज मै भी IPL , ICL क़ी किसी टीम का स्टार खिलाड़ी होता.
जब अचार बनने शुरू होते तो हम बच्चे उसमे सक्रिय रूप से अपना योगदान करते. आम क़ी फांके काटने से लेकर ताज़ा बने अचार को चखने और फिर चोरी से खाने तक.और यूँ एक दिन बारिश शुरू हो जाती और बड़े घोषणा कर देते क़ी अब आम पकने लगेंगे.
इस तरह एक युग क़ी समाप्ति होती और दूसरा दौर पके आमों का शुरू होता.
कभी कभी लगता है क़ी जितनी मस्ती हमारी पीढ़ी ने कर ली है क्या उतनी मस्ती अब के बच्चे कभी कर पाएँगे.शायद उनकी मस्ती के मायने अलग होते हैं, शायद उन्हे उन सब में रोमांच भी मिलता हो पर ज़रा सोचिए वो अमराइयाँ वो तरह तरह के आम और वो दिन भर घर से बाहर और बिना किसी चिंता के.पता नहीपके आमों पर फिर कभी………

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This entry was posted on Jul 2, 2008 at Wednesday, July 02, 2008 and is filed under . You can follow any responses to this entry through the comments feed .

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